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मेरे भाइयों ने जब सुना कि तारा का विवाह, एक तालुकेदार के विलासी लड़के से, जो सामूली हिन्दी पढ़ा- लिखा है, तै हुआ है, तो उन्होंने इसका बहुत विरोध किया । किन्तु उनके विरोध को कौन सुनता था । पिता जी तो अपनी हठ पकड़े थे, उनकी समझ में इससे अच्छा घर और वर मेरे लिए कहीं मिल ही न सकता था । सबसे अधिक आकर्षक बात तो उनके लिए थी वह कि वर बहुत बड़े खानदान, बीस बिस्वे कनवजियों के घर का लड़का था। फिर राजा से रिश्तेदारी करके क़स्बे में उनकी इज़्ज़त बढ़ न जायगी क्या ! इसके अतिरिक्त, विवाह का प्रस्ताव भी तो स्वयं राजा साहब ने ही किया था नहीं तो भला मामूली हैसियत के मेरे पिता जी यह प्रस्ताव कैसे ला सकते थे ? सबसे बढ़कर बात तो यह थी कि दहेज के नाम से कुछ न देकर भी लड़की इतने बड़े घर में व्याही जाती थी; फिर भला इतने बड़े-बड़े आकर्षणों के होते हुए भी पिता जी इस प्रस्ताव को कैसे टाल देते ?
पिता जी मेरी किस्मत की सराहना करके कहते, मेरी तारा तो रानी बनेगी । रानी बनने की खुशी में मैं फूली-फूली फिरती थी ! भाइयों का विरोध करना, मुझे अच्छा न लगता, किन्तु मैं उनके सामने कुछ कह न सकती थी । खैर, भाइयों के बहुत विरोध करने पर भी मेरा विवाह मंझले राजा मनमोहन के साथ हो ही गया ।
फूलों से सजी हुई मोटर पर बैठकर मैं ससुराल के लिए रवाना हुई । हमारे क़स्बे और ललितपुर के बीच में केवल सत्ताइस मील का अंतर था; इसलिए बारात मोटरों से ही आई और गई थी। जीवन में पहली बार मोटर पर बैठी थी। मुझे ऐसा मालूम होता जैसे हवा में उड़ रही हूँ। सत्ताइस मील तक मोटर पर बैठने के बाद भी जी न भरा था। यही चाहती थी कि रास्ता लंबा होता जाए और मैं मोटर पर घूमा करूँ। किंतु क्या यह संभव था? आख़िर को एक बड़े भारी महल के जनाने दरवाजे पर मोटर जाकर खड़ी हो गई। सास तो थी ही नहीं, इसलिए मेरी जिठानी बड़ी रानी जी परछन कर मुझे उतार ले गईं। मुझे एक बड़े भारी सजे हुए कमरे में बिठा दिया गया, स्त्रियाँ बारी-बारी से मुँह खोल के देखने लगीं। कोई रुपया, कोई छोटे-मोटे जेवर या कपड़े मेरी मुँह-दिखाई में दे-देकर जाने लगीं। मेरी जिठानी बड़ी रानी ने भी मेरा मुँह देखा, कुछ बोली नहीं, 'उँह' करके मेरी अँगुली में अँगूठी पहना दी।
मैंने सुना कि वे पास के किसी कमरे में किसी से कह रही थीं, देखा बहू को? क्या तारीफ के पुल बाँध रहे थे। ससुर जी के कहने से तो बस यही मालूम होता था कि इंद्र की अप्सरा ही होगी! पर न रूप न रंग, न जाने क्यों सुंदर कह-कह के कंगले की बेटी ब्याह अपनी इज्जत हलकी की। रोटी-बेटी का व्यवहार तो अपनी बराबरी वालों में होता है, बिरजू की माँ! पर ससुर जी तो इसके रूप पर बिलकुल लट्ट ही हो गए थे। मैं सुंदर नहीं तो क्या मुझे सुंदरता की परख भी नहीं है? न जाने कितनी सुंदरियाँ देखी हैं, यह तो उनके पैरों की धूल के बराबर भी न होगी। मालूम होता है, उमर के साथ-साथ ससुर जी की आँखें भी सठिया गई हैं, मंझले राजा को डुबो दिया।
बिरजू की माँ उनकी हाँ में हाँ मिलाती हुई बोली, 'सुंदर तो है रानी जी! जैसी आप लोग हैं वैसी ही है। पर अभी बच्ची है। जवान होगी तो रूप और निखर आएगा।'
बड़ी रानी तिलमिला उठीं और बोली, रूप निखरेगा पत्थर! होनहार बिरवान के होत चीकने पात। निखरने वाला रूप सामने ही दिखता है।
फिर वे जग विरक्ति के भाव में बोली, उँह, जाने भी दो, अच्छा हो या बुरा हमें करना ही क्या है?
जब मैं वहाँ अकेली रह गई, सारी औरतें चली गईं तो मेरी माँ के घर की ख़वासन ने, सूना कमरा देखकर, मेरा मुँह खोल दिया। शीशा उठाकर मैंने एक बार अपना मुँह ध्यान से देखा, फिर रख दिया। ढूँढ़ने से भी मुझे अपने रूप-रंग में कोई ऐब न मिला।